रायपुर, 04 जनवरी 2025
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित लखनलाल मिश्र जी की प्रतिमा का अनावरण कल दुर्ग में होगा । अनावरण कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर विधानसभा अध्यक्ष डॉ रमन सिंह मौजूद रहेंगे । वहीं उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा बतौर विशिष्ट अतिथि मौजूद रहेंगे । कार्यक्रम में सांसद विजय बघेल, विधायक गजेंद्र यादव, महापौर धीरज बाकलीवाल मौजूद रहेंगे । आपको बताते चलें कि कांग्रेस शासन काल में भी प्रतिमा के अनावरण को लेकर बात सामने आई थी लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपना समय नहीं दिया था ।
पंडित लखनलाल मिश्र जी का जीवन परिचय
(ज. 24 सितंबर 1909 | नि. 16 मार्च 1984)
पंडित लखनलाल मिश्र का जीवन स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में त्याग, साहस और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक है। वे छत्तीसगढ़ के एक प्रतिष्ठित मालगुजार परिवार से संबंध रखते थे और उनके पारिवारिक परिवेश में सामाजिक सेवा और देशभक्ति की गहरी जड़ें थीं। उनका जन्म 24 सितंबर 1909 को हुआ था और उनका जीवन त्याग, सेवा और राष्ट्रभक्ति का प्रतिमान बना।वे अंग्रेजों के शासनकाल में पुलिस दरोगा के रौबदार पद पर सन 1932 से कार्यरत थे, लेकिन उनके मन में सदैव एक टीस थी –देश के लिए खुलकर कुछ न कर पाने की पीड़ा।
वे ब्रिटिश प्रशासन का हिस्सा जरूर थे, लेकिन उनके भीतर जल रही राष्ट्रप्रेम की ज्वाला कभी मंद नहीं हुई। पुलिस की वर्दी पहने होने के बावजूद, वे स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों और गांधीजी के सिद्धांतों के प्रति गहरी आस्था रखते थे और स्थानीय क्रांतिकारियों के बहुत सहयोग किया करते थे। लेकिन, पद की सीमाएं और दायित्व उन्हें खुलकर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से रोकते थे। देशवासियों को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते देख, उनका मन व्यथित हो उठता था। उनके लिए वर्दी और राष्ट्रप्रेम के बीच का यह संघर्ष असहनीय होने लगा था। रामधारी सिंह दिनकर की उन पंक्तियों का उल्लेख वे सदैव करते थे जो उनके द्वन्द्व को परिलक्षित करती हैं कि –
“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” यह अंतर्द्वंद्व धीरे-धीरे उनके भीतर क्रांति की भावना को और अधिक बलवती करने लगा।
15 दिसंबर 1945 की घटना
15 दिसंबर 1945 को 36 वर्षीय लखनलाल मिश्र जी की यह टीस दुर्ग रेलवे स्टेशन पर एक ऐतिहासिक घटना के रूप में प्रकट हुई। पूर्व आई.सी.एस अधिकारी रहे श्री आर.के. पाटिल एक राष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत करने नागपूर जा रहे थे, इसी दरमियान दुर्ग रेल्वे स्टेशन पर कुछ देर रुककर उनका स्थानीय राष्ट्रवादी नेताओं से मुलाकात करने का कार्यक्रम था। पूर्व में श्री पाटिल दुर्ग के कलेक्टर रह चुके थे इसलिए वहाँ उनकी पैठ थी और इस बात को ध्यान में रखकर तत्कालीन पुलिस प्रशासन ने स्टेशन पर अपनी मुस्तैदी सुनिश्चित रखने का निर्णय लिया ताकि ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध कोई माहौल न पनप सके। इसे सुनिश्चित करने जिले के वरिष्ठतं दरोगा व दुर्ग के नगर निरीक्षक (शहर कोतवाल) पं लखनलाल मिश्र को एक टुकड़ी के साथ तैनात किया गया था।
जैसी ही श्री पाटिल की ट्रेन आयी और स्टेशन पर वह उतरे वातावरण में तनावपूर्ण सन्नाटा पसार गया। लेकिन वहाँ मौजूद हर एक शख्स तब चौंक गया जब उस सन्नाटे को चीरते हुए एक छह फुट का ओजस्वी ब्रिटिश दरोगा पं. लखनलाल मिश्र अपनी पुलिस टुकड़ी से अलग होकर पास खड़े एक स्वराजी श्री सरयू प्रसाद गुप्ता से सूत की माला लेते हैं और गाँधीवादी नेता पूर्व आई.सी.एस अधिकारी श्री आर.के. पाटिल को अपनी रौबदार पुलिस वर्दी में सेल्यूट बजाकर उसी क्षण नभ-भेद देने वाली आवाज में ‘भारत माता की जय’ और ‘महात्मा गांधी की जय’ का उद्घोष करते हुए कहते हैं कि “सर मैं भी आपके रास्ते पर आ रहा हूँ।“ एक ब्रिटिश पुलिस दरोगा की इस कृत्य से समूचा देश चकित था, व अगले दिन के सभी समाचार पत्रों में सम्पूर्ण देश में एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी के विद्रोह के रूप में यह समाचार हेडलाइन बनी। लेकिन उनका यह जय घोष प्रतीक था उस अंतर्द्वंद्व के अंत का, जो वर्षों से उनके मन में पल रहा था। यह उनके भीतर चल रहे राष्ट्रप्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन था, जिसने न केवल वहां मौजूद जनसमूह को प्रेरित किया बल्कि क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम में एक नई चेतना का संचार किया जैसा कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी मेरठ के मंगल पांडे से पैदा हुई थी।
त्याग के प्रतिमूर्ति अपने भरे पूरे परिवार की चिंता न करते हुए पंडित मिश्रा ने उसी क्षण अपनी पुलिस की नौकरी त्यागकर स्वतंत्रता प्राप्त करने के दुर्गम पथ के पथिक हो गए। वे अपने गृह ग्राम मुरा लौटे और राष्ट्रीय चेतना जागरण के कार्यों में अपना जीवन व्यतीत करने लगे। यह दर्शाता है कि स्वतंत्रता संग्राम केवल क्रांतिकारी आंदोलनों या हथियारों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि आंतरिक संघर्ष, आत्मबलिदान और नैतिक साहस के माध्यम से भी लड़ा जा सकता है। पंडित मिश्र साहित्य और कविता के माध्यम से भी समाज में जागरूकता लाने का कार्य करते थे। वे तुलसीदास, कबीर और रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं से अत्यधिक प्रभावित थे।
पंडित मिश्र ने छात्रों, युवाओं और समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। वे महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे, लेकिन उनकी अहिंसा किसी भी प्रकार की कमजोरी का प्रतीक नहीं थी। उन्होंने ‘परमवीर अहिंसा’ का मार्ग अपनाया, जिसमें त्याग और साहस का अद्भुत समन्वय था।
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात एक बार जब उन्हे मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने राष्ट्र और समाज के प्रति उनके योगदान को रेखांकित करते हुए उन्हें राज्य विजीलेंस प्रमुख का दायित्व सौंपना चाहा तो उन्होंने उस प्रस्ताव को यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि माँ भारती के लिए किये अपने कर्तव्यों का वे कोई मोल नहीं लगाते और इस कारण कोई प्रतिसाद नहीं लेंगे।
16 मार्च 1984 को पंडित मिश्र ने अपनी जन्मभूमि मुरा में अंतिम साँसे लीं। आने वाली पीढ़ियों के लिए वे प्रेरणा बन गये। उनके जीवन से यह सीख मिलती है कि पद और परिस्थितियों से ऊपर उठकर, सच्ची राष्ट्रसेवा का मार्ग अपनाया जा सकता है। उनकी गाथा छत्तीसगढ़ और पूरे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदैव अमर रहेगी।